अब तक हमने बाढ़ों से मुकाबला करने की विधा पर एक नजर डाली है जिसमें हरेक तरीके के इस्तेमाल में अगर कुछ अच्छाइयाँ हैं तो परेशानियों की सूची भी कुछ कम लम्बी नहीं है। इतनी जानकारी से कम-से-कम इतना तो तय हो ही जाता है कि बाढ़ों को रोकना कोई आसान काम नहीं है, ज्यादा से ज्यादा उन्हें कम किया जा सकता है और यह कमी बर्दाश्त करने की हदों तक आ जायगी, यह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है।
दूसरी बात यह है कि सारी नदियों की बाढ़ रोकने के लिये कोई एक ही नुस्खे का अनुसरण नहीं किया जा सकता। इसके लिये हो सकता है कई कोशिशें एक साथ करनी पड़े। इन सबके बावजूद यह भी तय है कि गंगा घाटी जैसे मैदान वाले इलाके में बाढ़ रोकने के नाम पर जब एक पैबन्द लगाया जायगा तो कपड़ा दूसरी तरफ से खिसकेगा जिसके बारे में हमने हल्की सी चर्चा की है। तब एक विचारधारा यह भी निकलती है कि बाढ़ के सदमे को बर्दाश्त करने की दिशा में कुछ कोशिशें की जायँ क्योंकि वैसे भी लाइलाज मर्ज में डॉक्टर भी दवा की जगह दुआ करने की सलाह देता है। नीचे हम कुछ उन तरीकों के बारे में चर्चा करेंगे जिनमें यह करीब-करीब कबूल कर लिया जाता है कि बाढ़ एक आवश्यक बुराई है और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर के कुछ किया जाय।
कहने को तो यह तरीका नाम से आधुनिक जान पड़ता है पर इसका सिद्धान्त काफी पुराना है। कहा भी है कि जिसका घर नदी के किनारे हो और जिसके घर में साँप रहता हो वह आदमी कभी चैन से नहीं रह सकता है। यानी नदी के किनारे घर होना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती थी। नारदीय पुराण ने गंगा स्थल को तीन भागों में बाँटा है जिन्हें गंगा गर्भ, गंगा तीर और गंगा क्षेत्र नाम दिया है। वर्षा के समय भाद्रपद की कृष्णा चतुर्दशी को जहाँ तक गंगा का पानी पहुँचता है उसे गंगा गर्भ कहते हैं। यह मान लेना चाहिये कि किसी भी नदी का पानी वहीं तक जाता है जहाँ तक कभी उस नदी की धारा बहती थी। गंगा गर्भ की सीमा से 150 हाथ (करीब 70 मीटर) तक की दूरी को गंगा तट कहा गया है और गंगा तट से दो कोस (लगभग 6 कि०मी०) तक की भूमि भाग को गंगा क्षेत्र कहते हैं। नारदीय पुराण गंगा गर्भ और गंगा तट के क्षेत्र में निवास करने से लोगों को वर्जित करता है। हम यह मान कर चल रहे हैं कि नारदीय पुराण में गंगा शब्द का प्रयोग परम्परागत रूप से सभी नदियों के लिये किया गया है।
फ्लड प्लेन जोनिंग इसी पुरानी मान्यता का आधुनिक संस्करण है। आज की तकनीक इन क्षेत्रों को दूसरे और अंग्रेजी नाम से जानती है। इसके मुताबिक जिन इलाकों से नदी के बाढ़ का पानी निश्चित तौर पर गुजरता है उसमें यदि निर्माण का कोई काम किया जाता है तो वह यकीनी तौर पर पानी के रास्ते की रुकावट बनेगा। ऐसे इलाकों को निषिद्ध क्षेत्र (Prohibitive Zone) कहते हैं और इसमें कोई निर्माण कार्य नहीं होना चाहिये। उन इलाकों में जिन में बाढ़ का पानी कभी-कभी गुजरता है और उसकी रफ्तार कम होती है उनमें निर्माण कार्य को रोकना तो जरूरी नहीं है पर उन पर नियंत्रण रखना बेहतर साबित होता है। ऐसे इलाकों को प्रतिबन्धित क्षेत्र (Restricted Zone) कहते हैं। प्रतिबन्धित क्षेत्र के बाहर की जमीन पर बाढ़ का पानी बिरले ही प्रवेश करता है और जब तक अधिकतम बाढ़ नहीं आयेगी तब तक इन इलाकों पर बाढ़ का असर नहीं पड़ता । इस क्षेत्र में, जिसे चेतावनी क्षेत्र (WarningZone) कहते हैं, निर्माण करने वालों को बाढ़ के बारे में ताकीद कर दी जाती है।
बाढ़ की सम्भावनाओं को देखते हुये प्रशासन की ओर से यह व्यवस्था की जाती है कि लोग अपने जान माल की सुरक्षा के लिये आवश्यक प्रबन्ध कर लें। समाचार पत्रों, रेडियो, टी० वी०, लाउडस्पीकर आदि के माध्यम से लोगों को सुरक्षित इलाकों में चले जाने को कहा जाता है।
बाढ़ से बचाव के लिये चेतावनी पक्ष को मजबूत करने के लिये आजकल बहुत कोशिशें चल रही हैं जिसमें आधुनिकतम संचार माध्यमों का यथा सम्भव उपयोग किया जाता है। आमतौर पर बरसात के मौसम में राज्य स्तर पर कम्प्यूटर आधारित नियंत्रण कक्ष की स्थापना कर दी जाती है। चौबीसो घण्टे काम करने वाले इस केन्द्र से पूरे राज्य में बाढ़ की स्थिति पर नजर रखी जाती है ताकि जरूरत पड़ने पर बचाव के आवश्यक उपाय किये जा सकें।
इतना सब कर लेने के बावजूद जब गाँव या शहर बाढ़ से घिर जाते हैं तो लोगों को सुरक्षित निकाल कर ऐसे स्थानों पर पहुँचाना ही एक रास्ता बचता है जहाँ कि जीवन की प्राथमिक सुविधायें उपलब्ध हों। इसमें खाने-पीने, कपड़ों दवाओं आदि की व्यवस्था शामिल है। यह काम स्थानीय स्वयं सेवी संस्थाओं, प्रशासन और सेना की मदद से किया जाता है।
बात जब बाढ़ से लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुँचाने की हद तक पहुँच जाय तब अगला कदम प्रभावित लोगों को राहत देने का होता है जिसके तात्कालिक तथा दीर्घकालिक दोनों ही पहलू होते हैं। तत्काल राहत तो भोजन, वस्त्र, अस्थाई निवास, दवा-दारू तक सीमित रहती है पर घरों और कृषि या रोजगार के साधनों के विनाश के कारण जन साधारण की पूरी जीवन पद्धति प्रभावित होती है। जानवरों के बड़ी तादाद में मारे जाने, चारे का अभाव, सड़कों-रास्तों का बह जाना, रेल व्यवस्था का छिन्न-भिन्न होना, महामारी और लूट-पाट की घटनायें आदि समस्यायें बाढ़ों के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ी हैं। इन सारी समस्याओं का समाधान करना और भविष्य में इस तरह की दुर्घटना दुबारा न हो ऐसी व्यवस्था करना राहत और पुनर्वास का अंग है।
विषय विस्तार के कारण इन सारे मुद्दों पर विचार करना मुमकिन नहीं जान पड़ता पर यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है।
अक्सर बाढ़ आने वाले इलाकों में लोग बाढ़ बीमा की बात उठाते सुने जाते हैं। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1980) ने भी इस मसले को उठाया है पर यह बात एकदम साफ है कि एक तो बाढ़ से होने वाला नुकसान इतना ज्यादा और बार-बार होने वाली चीज है कि किसी भी एक बीमा कम्पनी या उनके समूहों की भी ताकत नहीं है कि इतनी देन दारियों से निबट सके। सरकार को भी अगर इस प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाय तब भी हालात में कोई ज्यादा परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है। बाढ़ से होने वाले नुकसान की चर्चा हम आगे करेंगे जिससे समस्या के विकराल स्वरूप की कुछ जानकारी मिलेगी। दूसरी बात यह है कि बाढ़ बीमा की बात उठाते हुये अक्सर लोग यह भूल जाते हैं कि जब बीमा होगा तब उसकी किस्तों की अदायगी की बात भी उठेगी और रोज कुआँ खोद कर पानी पीने वाले लोगों से बीमे की किस्तों की अदायगी का बोझ बर्दाश्त नहीं होगा। विकसित देशों में इस दिशा में जरूर कुछ पहल हुई है पर भारत जैसे गरीब देश में यह हालात कब बनेगे कहना मुश्किल है।
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