बिहार में बाढ़, सूखा और अकाल...
2 अक्टूबर, 1961 के दिन मुंगेर जिले में मान नदी पर बनी खड़गपुर झील का तटबन्ध टूट गया था, जिससे मुंगेर जिले में भारी तबाही हुई थी। सरकारी सूत्रों के अनुसार तत्कालीन मुंगेर और भागलपुर में करीब 600 लोग इस घटना में मारे गये थे। इस झील के तटबन्ध के टूटने की घटना के अलावा अतिवृष्टि के कारण किउल, बरनर, सुखनर और आंजन नदियों में भीषण बाढ़ आयी, जिससे जमुई में, जो उस समय मुंगेर जिले का हिस्सा था, भारी तबाही मची। जमुई की इस घटना के बारे में मुझे बताया बिहार सरकार के अवकाशप्राप्त अधिकारी श्री रवीन्द्र सिंह ने जो उस समय विद्यार्थी थे। आगे की चर्चा उन्हीं के शब्दों में,
वह बाढ़ नहीं, प्रलय था।
मैं 1961 में टी.एन.बी. कॉलेज भागलपुर में पढ़ता था और मेरी शादी हो चुकी थी और ससुराल जमुई में थी। मित्र लोग मजाक में कहते थे अब आप ससुराल नहीं जा सकेंगे क्योंकि सारे रास्ते बन्द हैं। मेरी आयु अभी 74 वर्ष है और मैं मूलतः बांका जिले का रहने वाला हूँ और अब यहाँ जमुई में आकर बस गया हूँ। सेवा निवृत्त होने के पहले मैं इस जिले के बरहज और गिद्धौर का बी.डी.ओ. रह चुका हूँ और इस इलाके से पूरी तरह वाकिफ हूँ।
1961 में जमुई में बारिश तो 2 अक्टूबर से पहले ही कई दिनों से हो रही थी। 7 दिन लगातार या उससे भी ज्यादा समय से हो रही बारिश को हमारे यहाँ सतहा बारिश कहते हैं। ऐसी बारिश के समय लोग पहले से ही माचिस, किरासन तेल, खाने पीने का जरूरी सामान साथ रख लेते थे। हमारे यहाँ से खड़गपुर झील करीब 50 किलोमीटर दूरी पर है, हमारे बहुत से रिश्तेदार उधर रहते हैं और हम लोगों ने उन लोगों से इस दुर्घटना के किस्से सुने थे। 2 अक्टूबर, 1961 के दिन मान नदी पर पहाड़ों के बीच बनी खड़गपुर झील टूटी। उसने तो इतिहास रच दिया पर भारी वर्षा के बीच उपर्युक्त नदियों ने जो विध्वंस लीला की उसे भुलाना मुश्किल है। 3 अक्टूबर की सुबह जमुई में पानी यहाँ सुबह 4 बजे के करीब आ गया था। लोग सोए हुए थे, किसी को कोई खबर नहीं थी, किसी तरह की कोई चेतावनी भी नहीं थी और इतना पानी आ जायेगा इसका तो किसी को अंदाजा तक नहीं था।
यहाँ शहर से रेलवे स्टेशन के रास्ते में दो पुल थे। एक किउल और दूसरा अंजन नदी पर, जिसे कुकुरझप भी कहते हैं पुल हुआ करते थे। उस बाढ़ के पानी ने इन दोनों पुलों को उठा कर फेंक दिया और वह 7-8 फुट नीचे नदी में धँस गये। नीचे पतौना और खैरवाँ गाँव थे वह भी बह गये। झील के टूटने से तीन मील चौड़ी और आठ फुट गहरी पानी की दीवार में जानवरों समेत बहुत से गाँव उस पानी में बहे और बहुत से लोग भी उसी में बहे जो छप्परों पर बैठे-बैठे सबके देखते-देखते गंगा जी में समा गये थे। अगले दिन सुनने में आया कि बहुत से आसपास के गाँव भी उस पानी में बह गये और बहुत से लोग और जानवर भी उसी गति को प्राप्त हो गये। यहाँ पास में मुजफ्फरगंज गाँव था उसका पता नहीं लगा। जमुई शहर का कल्याणपुर टोला था वह उसी पानी के साथ चला गया। शहर में इन पुलों के पहले नदी ने दो किलोमीटर पहले तक का पूरा इलाका बालू से पाट दिया था। यह बालू का टीला अभी भी मौजूद है। पानी चला गया बालू रह गया।
हमारे यहाँ कुछ देर से पकने वाली मकई होती थी जो दुर्गा पूजा के आसपास काटी जाती थी और लगभग तैयार थी। वह तो पूरी तरह से बरबाद हो गयी थी। जो मकई पहले कट चुकी थी वह या तो खलिहान में थी या घरों में पहुँच चुकी थी। जो खलिहान में थी वह बह गयी और जो घरों में थी वह सड़ गयी। फसल के नाम पर आगे कुछ होने वाला था ही नहीं। वह बाढ़ थोड़े ही थी, प्रलय थी। उस समय इलाके में जो बालू फैला, उस बालू का आजकल महत्व जरूर बढ़ गया है जिसे बेचने में बड़े-बड़े लोग लगे लगे हुए हैं।
यहाँ प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस का घर था वह किसी तरह से बच गया पर उनके खेत उजाड़ हो गये। वह रहते तो शांतिनिकेतन में थे पर यहाँ आते-जाते रहते थे।
इस बाढ़ के बाद दो साल तक यहाँ कोई फसल नहीं हुई। पूरा इलाका बालू से पट चुका था तो किस की जमीन कहाँ है यह भी किसी को पता नहीं था। बाद में नाप-जोख वगैरह हुई तब जमीन के कागज तैयार हुए और तभी खेतों की चौहद्दी तय हुई और उसके बाद कुछ खेती शुरू हुई। यह काम बहुत समय लेने वाला था और आसान नहीं था।
प्रभावित लोगों का जन-जीवन सामान्य होने में प्रायः तीन साल का समय लग गया था क्योंकि नीचे बरियारपुर, देवाचक, कुंदर आदि गाँव तथा बरहट प्रखंड के ओलीपुर आदि गाँवों का पता ही नहीं लग रहा था। मलईपुर गाँव में धुनिया लोगों की बस्ती थी और उसके बगल में कायस्थ टोला था। यह बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह का गाँव था। इन सभी गाँवों में खेतों और सम्पत्ति को बहुत नुकसान उठाना पड़ा था। वहाँ एक कृत्यानंद मिडिल स्कूल था, जो अब हाई स्कूल हो गया है, उसकी छत के ऊपर से पानी पार हो गया था। स्कूल की लाइब्रेरी, रजिस्टर, कागज-पत्र सब नष्ट हो गये थे।
पानी उतरने के बाद आदमियों और जानवरों की सड़ी हुई लाशें चारो तरफ बिखरी हुई पड़ी थीं जिससे महामारी फैलने का डर था। सरकार ने क्या मदद की वह तो मुझे याद नहीं पर खादीग्राम नाम की एक सर्वोदय संस्था की उन्होंने जरूर मदद की थी। आचार्य राममूर्ति, धीरेन मजूमदार जैसे स्वनामधन्य लोग राहत कार्य की देखभाल कर रहे थे। इस संस्था ने बाढ़ पीड़ितों के खाने-पीने, कपड़े-लत्ते का इन्तजाम कर दिया था और यहाँ से नीचे पतौना गाँव से लगी हुई एक ऊँची पहाड़ी जैसी जमीन, कटौना कहते हैं, उसी पर पतौना गाँव के जो कुछ जीवित बचे परिवार थे उनके लिए किसी क्रिश्चियन मिशनरी ने घरों का निर्माण कर दिया था।
श्री रवीद्र सिंह