मेरा गाँव कमलपुर, प्रखंड निर्मली, जिला सुपौल में पश्चिमी कोसी तटबन्ध के कंट्रीसाइड में भारत-नेपाल सीमा के पास पड़ता है। भारत-नेपाल सीमा और हमारे गाँव के बीच में भारत का आखिरी गाँव कुनौली पड़ता है और सीमा के उस पार नेपाल का पहला गाँव डलवा है।
1963 में मैं 14-15 साल का रहा होऊंगा और छठी कक्षा में कुनौली उच्च विद्यालय में पढ़ता था। हमारे गाँव में केवल प्राइमरी स्कूल ही था और आगे की पढ़ाई के लिये कुनौली ही जाना पड़ता था।
1963 में नेपाल में डलवा गाँव में कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूट गया था और वहाँ से पानी निकल कर बाहर आ गया था भले ही उसका परिणाम बहुत खतरनाक नहीं था। डलवा से निकला हुआ पानी नेपाल के तिलाठी और रामपुरा गाँव से होता हुआ भारत में कुनौली को छूता हुआ कमलपुर तक आया था और यहाँ से दक्षिण दिशा में तिलयुगा नदी की ओर चला गया।
तिलयुगा कोसी की एक सहायक धारा है जिस पर तब भी तटबन्ध बना हुआ था। कुनौली थोड़ा ऊँचाई पर है इसलिये यह पानी वहाँ के बाजार में तो नहीं गया लेकिन उस को छूता हुआ आगे की ओर बढ़ा और हमारे गाँव होता हुआ नीचे की ओर चला गया था। मेरे पिताजी स्थानीय पोस्टमास्टर थे और उस समय के विधायक बैद्यनाथ मेहता हमारे ही गाँव के थे। जिस दिन गाँव में पानी घुसा उस दिन विधायक जी गाँव में नहीं थे। उनके बड़े भाई रघुनाथ मेहता ने गाँव की कमान सम्भाली हुई थी। गाँव में जब पानी घुसा तो वह हरकत में आये और गाँव के जो लोग इस पानी से बचने के लिये कोसी तटबन्ध पर चले गये थे उनको वहाँ से नाव से निकाल कर गाँव के प्राथमिक विद्यालय में ले आये जो कुछ ऊँची जगह पर था। यह उस समय जरूरी हो गया था क्योंकि गाँव के रास्तों पर तथा अधिकांश घरों में कोसी का पानी फैल गया था। हमारे गाँव का स्कूल अभी भी पानी के ऊपर था।
जब हम लोग गाँव के स्कूल आ गये तब पानी कुछ घटना शुरू हुआ और वह नीचे जाकर राजपुर गाँव के पास तिलयुगा के तटबन्ध पर अटक गया। पानी की निकासी न होने से उसका लेवल बढ़ना शुरू हुआ। उस गाँव के कुछ साहसी युवकों ने लोगों के बहुत मना करने के बावजूद तिलयुगा के बाँध को काट दिया और यह सारा पानी तिलयुगा के रास्ते कोसी तटबन्ध में बने स्लूइस से होता हुआ कोसी नदी से जा मिला। वैसे भी ऊपर से आने वाला वर्षा का पानी इस जगह तिलयुगा के तटबन्ध पर हर साल अटकता ही था भले ही उसकी मात्रा इतनी नहीं होती थी जितनी इस साल हो गयी थी। इस पानी की निकासी के लिये राजपुर और आसपास के गाँव वाले उसे काट दिया करते थे। ऐसा प्राय: हर साल-दो साल पर होता ही रहता था।
हमारे गाँव में और तटबन्धों के अन्दर के गाँवों में धान लगा हुआ था और वह एक दिन तो जरूर पूरा का पूरा पानी में डूबा रहा होगा। इतने कम समय में डूबे रहने पर धान को उतना नुकसान नहीं पहुँचता है, वह वापस फिर खड़ा हो जाता है। अगर यही धान चार-छ: दिन तक पानी में डूबा रह जाये तब फिर वह खराब हो जाता है। फिर भी हम लोगों के यहाँ दस आना धान हो गया था। इस तरह से धान की उतनी क्षति नहीं हुई थी। ताजी मिट्टी खेतों में पड़ जाने से उस साल रब्बी की फसल बहुत अच्छी हुई थी। खेसारी और तीसी की फसल काफी जोरदार हुई थी। गेहूँ हमारे यहाँ उतना ही होता था या किया जाता था जिससे तीज-त्यौहार पर पूजा-पाठ के लिये या किसी अतिथि के आने पर स्वागत-सत्कार में पूड़ी बन सके वरना सभी लोग चावल ही खाते थे। किसान एक आध-कट्ठा ही गेहूँ बोते थे और बाकी मांगलिक काम तो जौ से होता था और वह भी बहुत ज्यादा नहीं बोया जाता था।
डलवा से तटबन्ध को तोड़ कर निकला हुआ पानी ज्यादातर मरौना प्रखंड के गाँवों से होता हुआ आगे बढ़ा और वहाँ उसे फैलने का भी मौका मिल गया था क्योंकि उसके सामने कोई अवरोध नहीं था। हमारा गाँव कमलपुर और हरपुर एक तरह से इस पानी के मुहाने पर पड़ गये थे इसलिये यहाँ नुकसान ज्यादा हुआ था।
हमारी ज्यादातर जमीन बाँध के अन्दर ही पड़ती है। यह तटबन्ध भी हमारी जमीन से गुजरा है। हमारी बहुत सी जमीन पुनर्वास में भी चली गयी थी। मेरी दादी इस तटबन्ध को बहुत कोसती थी कि इसकी वजह से हमारी पूरब और पश्चिम दोनों तरफ वाली जमीन बरबाद हो गयी, पूरब में नदी के कटाव और खेतों पर बालू पड़ जाने की वजह से तथा पश्चिम में जल-जमाव से। डलवा में तटबन्ध को तोड़ कर निकला हुआ पानी तिलयुगा के माध्यम से आगे बढ़ता हुआ कोसी में मिलने के क्रम में कई गाँवों को तबाह करके ही आगे बढ़ा था और उन गाँवों की तो एक तरह से शामत आ गयी थी। सरकार की ओर से कुछ रिलीफ इन गाँवों में जरूर बाँटी गयी थी।
यहाँ साइट पर एक अय्यंगार साहब एग्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर थे जो बहुत कड़क आदमी थे। बाँध टूटने के बाद जब हमारे एम.एल.ए.साहब उनसे मिलने के लिये गये थे कि मजदूरों की अगर जरूरत हो तो वह व्यवस्था कर देंगे। अय्यंगार साहब ने साफ मना कर दिया था कि उन्हें मजदूरों के नाम पर पार्टी कार्यकर्ताओं की जरूरत नहीं है। वह अपना काम और जिम्मेदारी अच्छी तरह समझते हैं और उन्हें किसी मदद नहीं चाहिये। बैद्यनाथ बाबू भी उतने ही सिद्धांतवादी थे। उन्होंने इस घटना के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों की विधानसभा में अच्छी खबर ली थी।
श्री सुशील कुमार झा