बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल
मुन्नर यादव, 84 वर्ष, ग्राम बहुअरवा, पंचायत लौकहा, प्रखंड सरायगढ़, जिला सुपौल से मेरी बातचीत के कुछ अंश।
हम लोग अभी अपने गाँव और अपनी जमीन पर कोसी के पूर्वी तटबन्ध के पूरब में और भपटियाही के उत्तर में रह रहे हैं। कोसी पर तटबन्ध बनने के पहले यूँ समझिये कि कोसी अपने मूल स्वरूप में ही इस इलाके से बह रही थी। किसी भी तरह के बाहरी काम-धाम, हाट-बाजार और चावल लाने के लिये हम लोग नेपाल के हनुमान नगर पर निर्भर करते थे। वहाँ जाना हमारे लिये आसान था। तटबन्ध बनने के पहले 1953, 1954 का साल रहा होगा जब नदी में इतना पानी आ गया था और उस पानी की रफ्तार इतनी तेज थी कि नाव से हनुमान नगर जाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी और लौटने में बहुत डर लगता था क्योंकि कोसी नदी के पानी का प्रवाह बहुत तेज हुआ करता था। फिर भी वापस आने में दो-तीन घंटा जरूर लग जाता था। यहाँ से दूध और खेसारी नेपाल जाता था और वहाँ से हम लोग चावल अपने घर ले कर आते थे। दूध और दही तथा उसके उत्पाद नेपाल में ज्यादा बिक जाते थे।
उस समय इस पूरे इलाके में काँस के जंगल भरे हुए थे और उनमें बाघ रहता था। हमारी भैंसें चरने के लिये जंगल की तरफ जाया करती थी और वह सब की सब एक झुंड बना कर जाती थीं। उनके साथ कोई आदमी या लड़के-बच्चे नहीं जाते थे। उनका झुंड में जाना ही उनकी सुरक्षा की गारन्टी होती थी। शाम को वह सब की सब अपने आप लौट आया करती थीं।
उन दिनों नदी के पानी में घड़ियाल होता था और अभी भी कहीं कहीं वह दिखायी पड़ता है। हमारे गाँव के सामने तटबन्धों के अन्दर एक उग्रीपट्टी गाँव है। वहाँ दो साल पहले एक बार नदी गाँव के बहुत पास आ गयी थी। उस गाँव में कुछ लोग शाम में चौकी लगा कर बैठे थे। उसी समय एक घड़ियाल नदी में से निकल कर गाँव में आया और एक महतो परिवार के घर तक चला आया। धीरे-धीरे वह महतो जी के घर के पास जो लोग चौकी पर बैठे थे उनके पास तक चला आया और उसने अपना मुँह खोला और उसे फैलाना शुरू किया। तभी उस पर किसी की नजर पड़ गयी और वहाँ चीखना-चिल्लाना शुरू हो गया। यह शोर सुनकर गाँव के और लोग भी वहाँ इकट्ठा हो गये। इन लोगों ने उस घर की उसकी जो टाटी थी उसको हटाया और वहाँ जो लोग बैठे थे उनको बाहर निकाल दिया और नाव की मदद से सबको तटबन्ध के पूरब में हम लोगों के गाँव की तरफ ले आये। घड़ियाल को छेड़ने का साहस शायद उन लोगों में नहीं था। वह इतना बड़ा तो जरूर था कि किसी को अगर पकड़ लेता तो उसको बचा पाना सम्भव नहीं था। तब से लोग पूरी तरह सावधानी बरतते हैं। घड़ियाल दिखाई पड़ना उन दिनों आम बात थी।
तटबन्धों के निर्माण के पहले नदी गहरी थी और उसमें पानी की समाई ज्यादा होती थी। उसका पानी ज्यादा बढ़ने पर फैलता जरूर था मगर कम हो जाने पर जल्दी ही नदी में वापस चला जाता था। अब बाँध बन जाने के बाद बालू जम जाने के कारण नदी छिछली हो गयी है और बाढ़ आने पर उसका पानी दोनों ओर के तटबन्धों तक जल्दी पहुँच जाता है और ज्यादा समय तक टिका रहता है क्योंकि नदी का जलस्तर तटबन्धों के पहले की तरह जल्दी नहीं उतर पाता है।
अभी तटबन्धों के अन्दर एक तो कटाव बढ़ रहा है और ज्यादा देर पानी रहने से धान का बिचड़ा भी खराब हो जाता है। किसान जैसे-तैसे दुबारा तो धान लगाने की व्यवस्था कर सकता है पर यह काम अगर तिबारा करना पड़ जाये तो किसान के सारे संसाधन समाप्त हो जाते हैं और वह हार मान कर बैठ जाता है। पहले यहाँ भदई धान, मड़ुआ, कोनी और सावां हो जाया करता था पर अब उसका नामोनिशान भी नहीं मिलता। भदई धान थोड़ा-थोड़ा कहीं हो जाता है पर बाकी कुछ नहीं होता। हम लोग अब मकई करने लगे हैं जो छह से आठ मन का कट्ठा हो जाती है पर सूअर उसके खेतों में घुसकर उन्हें नष्ट कर देता है। यह एक समस्या है। इससे अगर बच गयी तो मकई ठीक-ठाक हो जाती है।
हमारी जमीन ज्यादातर तटबन्ध के अन्दर है। थोड़ी जमीन बाहर भी है जिससे खाने-पीने भर को अनाज मिल जाता है। अन्दर वाली जमीन का तो कोई भरोसा नहीं है। उपज हो गयी तो खूब होगी और नहीं तो खाली हाथ आना पड़ता है। गेहूं, कुर्थी, मसूर, खेसारी और तुअर तटबन्धो के अन्दर हो जाती है। आजकल धान का बीज बाजार से आता है लेकिन पहले हम लोग इन्हीं खेतों पर अपने स्थानीय और पारम्परिक बीज सतराजा, मटिया, गोला, तंजाली, रांगी, रंगवा, चननचूर, सिंगरा, दशरिया, बरोगर आदि,, जो गहरे पानी में होते थे, उनका इस्तेमाल कर लेते थे। जितना गहरा पानी वैसा ही धान उगा लेते थे। मछली पहले भी थी, अभी भी है।
आजकल नौका दुर्घटनायें ज्यादा होने लगी हैं क्योंकि पहले लोगों को नाव पर चढ़ने का सलीका आता था। किसी को कोई जल्दी भी नहीं थी। सबके पास समय था। अब तो हर आदमी जल्दी में है, नाव में चढ़ने में भी और उतरने में भी। इस वजह से अब पहले के मुकाबले नौका दुर्घटनायें ज्यादा होने लगी हैं। यह घटनायें किनारे पर होती हैं, बीच धार में नहीं। अब तो लोग तैरना भी उतना नहीं जानते। हम लोग जो तटबन्ध के कन्ट्रीसाइड में हैं जल-जमाव भोगते हैं और बरसात भर तटबन्ध टूटने के आतंक में जीते हैं।
श्री मुन्नर यादव