परिवहन व्यवस्था में सुधार-अंग्रेज़ों की मजबूरी थी मगर अनियोजित तरीके से किये गए निर्माण ने बाढ़ की निरंतरता को तो बढ़ा ही दिया मगर साथ ही बाढ़ से उपजी तबाही को भी और विनाशकारी बना दिया।
1857 की आज़ादी की लड़ाई के बाद साम्राज्यवादी ताकतों के लिए यह जरूरी हो गया कि वह सड़कों और रेल लाइनों का तुरन्त विकास करें। उनको सड़कों और रेल-लाइनों के जाल बिछाने की मजबूरी थी ताकि अगर कहीं विद्रोह के स्वर फूटते हों तो वह उन्हें तुरन्त कुचल दें। पूर्णियाँ गज़ेटियर कहता है, ‘‘1857 के विद्रोह का नतीजा था कि प्रशासन की पकड़ को मजबूत बनाया गया। इस बात का अनुभव किया जा रहा था कि थानों की संख्या बढ़ाई जाये और प्रशासन का इस तरह से विस्तार किया जाय कि विक्षोभ को दबाया जा सके। सड़कों का भी विस्तार किया गया और गंगा-दार्जिलिंग मार्ग सेना की आवाजाही के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया।’’
सड़कों का फैलाव और उनका उपयोग केवल सुरक्षा की दृष्टि से ही अहम नहीं था। इन सड़कों का अपना व्यापारिक महत्त्व भी था। तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था में निलहे गोरों का योगदान बड़ा मायने रखता था। इनकी कोठियाँ पूरे इलाके में फैली हुई थीं और उनमें किसी न किसी प्रकार का सड़क सम्पर्क भी था। इन रास्तों पर एक घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले तांगे, दो घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाली बग्गियाँ या फिर पालकी आने जाने भर को जगह हुआ करती थी। इन निलहे गोरों की मौज-मस्ती की महफ़िलों को आबाद करने के अलावा इन रास्तों से उनका तैयार माल स्थानीय बाज़ारों और नदी के घाटों तक पहुँचता था। इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए भी सड़कों का विस्तार जरूरी था।
शुरुआती दौर में रेल सेवाओं में लगाई गई पूंजी अंग्रेज़ों के लिए बहुत फायदे की चीज़ नहीं थी। लेकिन यातायात का यह साधन इंग्लैंड में ज्य़ादा प्रचलित था और वहाँ के व्यापारी यह चाहते कि उनका माल भारतवर्ष के भीतरी इलाकों तक पहुँचे और बिके। सरकार भी रेलवे कम्पनियों को प्रोत्साहित करने के लिए उनके निवेश पर सूद की गारन्टी देने जैसे उपाय करने के लिए प्रतिबद्ध थी और ‘‘ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश हुकूमत दोनों के प्रशासन पर वहाँ के सदन का लगातार दबाव पड़ रहा था कि भारत में रेल लाइनों का विस्तार कई गुना किया जाय भले ही इससे उन्हें नुकसान ही क्यों न होता हो।’’ इसके अलावा ब्रिटेन में दो घटक और मुखर थे जो कि भारत में रेल सेवाओं के विस्तार के प्रति उतने ज्य़ादा उत्साहित नहीं थे। इनमें से एक घटक का नेतृत्व अनौपचारिक रूप से सर आर्थर कॉटन कर रहे थे जिन्होंने दक्षिण भारत में कावेरी, गोदावरी और कृष्णा नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान किया था और वह नहरों से नौका परिवहन के बहुत बड़े पैरवीकार थे। उनका कहना था कि, ‘‘हिन्दुस्तान को जरूरत है जल-पोतों की। रेल सेवा पूरी तरह से असफल रही है, वह वाजिब दामों पर लोगों और माल को नहीं ढो सकती, उनकी माल ढोने की क्षमता भी नहीं है तथा इन्हें चलाते रहने के लिए देश को तीस लाख (पाउण्ड) की हर साल जरूरत पड़ती है और यह रकम हर साल बढ़ती जाती है। तेज़ गति से चलने वाली नावों के लिए यदि नहरें बनाई जायें तो उन पर रेलेवे के मुकाबले आठ गुना कम ख़र्च होगा। यह (नावें) किसी भी मात्रा में, किसी भी गति से और मामूली ख़र्चे पर माल ढो सकती हैं।’’
सर जॉर्ज कैम्पबेल ने, जो कि पहले बंगाल में अफसर थे और सेवा निवृत्त होने के बाद सदन के सदस्य बने थे, आर्थर कॉटन का मज़ाक बनाते हुये यह तंज कसा था, कि, ‘‘इस बात में कुछ दम जरूर है कि उनके दिमाग़ में पानी भरा हुआ है।’’ दूसरा घटक जो कि भारत में रेल सेवाओं के विस्तार के खि़लाफ था उसका यह मानना था कि रेल सेवा सरकार के लिए एक स्थाई दायित्व बन जायेगी और इसे चलाते रहने के लिए सरकार को बहुत सब्सिडी देनी पड़ेगी। इस बात की भी शंका जाहिर की गई कि लोग बैलगाड़ी छोड़ कर रेल की सवारी करेंगे भी या नहीं। साधु, फकीर, मजदूर और इसी तरह के फटेहाल लोग जिनके पास इकन्नी तक नहीं होती उनसे यह आशा करना कि वह पैसा देकर रेल में सफर करेंगे, इसकी उम्मीद कम है। ऐसे लोगों को समय की कीमत नहीं मालूम है और वह फिजूल घूमना ही ज्य़ादा पसन्द करेंगे। इन सारे तर्क-वितर्कों के बावजूद रेल सेवाओं और सड़कों का विस्तार निर्बाध रूप से चलता रहा। उस समय वक्त की मांग भी शायद यही थी।
नज़र उत्तर बिहार पर
अब एक नज़र उत्तर बिहार पर डालें। यहाँ की गंगा घाटी प्रायः एक सपाट मैदान है। यहाँ जब भी रेल लाइन, सड़क या नहर बनेगी तो यह हमेशा भरावट में बनेगी और निश्चित रूप से पानी के बहाव की दिशा में रोड़े अटकाने का काम करेगी। उदाहरण के लिए हम चम्पारण को देखें। सन् 1794 में पूरे जिले में सरकार सारण (छपरा) से लेकर सरकार चम्पारण तक की केवल एक सड़क थी और वह भी इस बुरी हालत में थी कि बरसात के मौसम में यात्रियों को पानी में चलना पड़ता था। चम्पारण के कलक्टर ने 1800 में टिप्पणी की थी कि, ‘‘ऐसा नहीं लगता है कि जिले में कोई सड़क है’’ और उसने सिफ़ारिश की कि व्यापार आदि को सुचारु रूप से चलाने के लिए 280 किलोमीटर सड़कों का निर्माण किया जाय। 1845 आते आते चम्पारण का जिला मुख्यालय मोतिहारी, छपरा, मुजफ्फरपुर, पटना, बेतिया, और सुगौली से जोड़ दिया गया था। बेतिया होते हुये मोतिहारी का सम्पर्क रामनगर, त्रिवेणी होते हुये नेपाल से हो गया था।
हन्टर के अनुसार 1876 में चम्पारण में सड़कों की लम्बाई 700 किलोमीटर तक जा पहुंची थी। सड़कों का यह विस्तार 1600 किलोमीटर (1886), 1666 किलोमीटर (1899), 2091 किलोमीटर (1906), तथा 1938 में 3770 किलोमीटर हो गया था। इन सड़कों ने यातायात तो जरूर सुधारा मगर पानी का रास्ता रोक दिया। 1896 के अकाल के बाद राहत कार्यों की शक्ल में त्रिवेणी नहर का निर्माण हुआ जो कि प्रायः भारत-नेपाल सीमा के समानान्तर पश्चिम से पूरब की दिशा में जाती थी जबकि ज़मीन का ढाल उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूरब की ओर था। इस नहर से अटके पानी और लगातार नहर के टूटते रहने के कारण इसके रख-रखाव के लिए बहाल इंजीनियर कभी चैन से नहीं सो पाये। इस तरह की घटनायें उत्तर बिहार में अनेक स्थानों पर हो रही थीं। उत्तर बिहार में रेल सेवा की शुरुआत 1 नवम्बर 1875 को हुई जब समस्तीपुर होते हुये दलसिंह सराय से दरभंगा तक पहली बार गाड़ी चली थी। चम्पारण में रेल सेवा की शुरुआत 1888 में हुई और जब अंग्रेज भारत छोड़ कर गये जब चम्पारण में 317 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन थी।
परिवहन सुविधा का विस्तार ज़रूरी था मगर जब यह बेतरह और अवैज्ञानिक तरीके से हो तब दूसरी कि़स्म की मुसीबतें पैदा होती हैं और अंग्रेज़ों ने यह मुसीबतें मोल ले ली हुई थीं।
उधर नदियों के किनारे ज़मीन्दारों के तटबन्ध नए भी बन रहे थे और जो पुराने थे उनका रख-रखाव चलता ही था। धीरे-धीरे अंग्रेज़ों का किया हुआ उनके सामने आने लगा था। नदियाँ अपना पानी नहीं संभाल पा रही थीं क्योंकि वह संकरी हो रही थीं। गाद/बालू के जमाव के कारण उनकी पेटी ऊपर आ रही थी, तटबन्धों के बाहर की ज़मीन की उर्वराशक्ति घट रही थी क्योंकि उसे नदी का ताज़ा पानी नहीं मिलता था, जल-जमाव और पानी का अटकना आम बात होने लगी जिससे मलेरिया और उस जैसी बहुत सी जान-लेवा बीमारियाँ फैलने लगीं। इन सबके ऊपर जो सबसे बड़ी बात थी वह यह कि तटबन्धों के बीच फंसी नदियाँ एक तरह से विस्फोट के कगार पर पहुँच गईं जिसकी वज़ह से भारी बरबादी और भीषण बाढ़ का सामना करना पड़ता था।
जल्दी ही तटबन्धों का रख-रखाव विभाग के लिए निहायत परेशानी का सबब बन गया क्योंकि सूखे मौसम में उसे तटबन्धों की मरम्मत करके उन्हें सही ऊँचाई और शक्ल देनी पड़ती थी और पूरी बरसात उनकी बाढ़ से सुरक्षा के साथ-साथ ग्राम वासियों के हमले से भी हिफाजत करनी पड़ती थी। सूखे के समय तो तटबन्धों पर दिन-रात नज़र रखनी पड़ती थी मगर उसके बावजूद लोग (सिंचाई के लिए) तटबन्धों को काट देते थे जिससे थोड़े से इलाके पर फसलों को जरूर फायदा होता था मगर बाद में बड़े इलाके पर तबाही मचती थी।’’ इन्हीं सब झंझटों की वज़ह से अंग्रेज़ों ने दामोदर परियोजना से हाथ धो कर किसी तरह अपना पीछा छुड़ाया और इसी तज़ुर्बे की बुनियाद पर जब 1872 में उत्तर बिहार में गंडक परियोजना का प्रस्ताव किया गया तब लाट साहब ने उसे जैसे का तैसा लौटा दिया।
तटबन्धों का तो काम तब कुछ हद तक रुका मगर रेल लाइनों का विस्तार निर्बाध गति से चलता रहा और रेल कम्पनी पर संभवतः पहली बार 1895 में सारण जिले में बंसवार चक पुल पर पानी की निकासी में बाधा पहुँचाने और बाढ़ लाकर किसानों की फसल का नुकसान करने का इल्जाम लगाया गया। रेल कम्पनी को एक नदी की धारा को छेंकने और उसकी वज़ह से किसानों को नुकसान पहुँचाने की भरपाई के लिए 60,000 रुपये का मुआवज़ा देना पड़ा था।
कोसी नदी पर जब कुरसेला में पुल बन रहा था तब उत्तरी क्षेत्र के सुपरिन्टेडिंग इंजीनियर एच-एन-सी- क्लोएट ने भागलपुर और संथाल परगना के कमिश्नर को एक पत्र लिखकर (पत्र संख्या 1537 दिनांक 6 अप्रैल 1897) आगाह किया कि इस पुल के निर्माण से बाढ़ की आशंका बढ़ेगी और अगर ऐसा होता है तो रेल कम्पनी को किसानों की क्षतिपूर्ति के लिए कहा जाना चाहिये। ‘‘पूरे इलाके में बिना पानी की निकासी की व्यवस्था किये बग़ैर ऊँचे तटबन्धों के निर्माण की वज़ह से प्राकृतिक बाढ़ के बदले प्रत्येक नदी घाटी में ऊपर तक पानी भरा रहेगा और यह तब तक भरा रहेगा जब तक या तो यह ज़मीन में रिस कर या फिर वाष्पीकरण की वज़ह से समाप्त न हो जाये। हमें ऐसी परिस्थिति से अपना बचाव करना चाहिये जिसके लिए सरकार ने आदेश भी जारी किये हैं मगर इसके अंजाम की तलवार हमेशा हमारे सिर पर लटकती रहेगी।’’
क्लोएट की कोशिश रंग लाई और भागलपुर के कमिश्नर ने बंगाल सरकार के राजस्व विभाग के सचिव को एक बहुत ही कड़ा पत्र (पत्रंक 133R दिनांक 11 अप्रैल 1897) लिख कर कहा कि, ‘‘रेल प्रशासन हमें अन्धेरे में रखता है और ऐसा लगता है कि वह हमारी उपेक्षा कर रहा है। उनके इन कारगुज़ारियों को बदनीयती के अलावा और कोई नाम नहीं दिया जा सकता। कम्पनी के कार्य-कलाप को मैंने लन्दन में भी देखा है जिससे मेरी इस धारणा को बल मिलता है कि वह पूंजी निवेश करने वालों के हितों की रक्षा करने के अलावा किसी भी चीज़ की कुर्बानी दे सकती है।’’
वास्तव में इस रेलवे बांध और नदी के पानी की निकासी के लिए आवश्यकता से कहीं कम जलमार्ग दिये जाने पर पूर्णियाँ के कलक्टर और गोण्डवारा नील फैक्टरी के मालिकों ने भी ऐतराज़ किया था मगर रेलवे कम्पनी बराण्डी, बोरो और छोटी कोसी जैसी नदियों पर बने पुलों पर कुछ अतिरित्तफ़ जलमार्ग देकर और पूर्णियाँ के सम्बद्ध लोगों को कुछ ले-दे कर मामले को रफ़ा-दफ़ा कर देना चाहती थी। वह इन लोगों को गंगा के उत्तर में हुये कुछ नुकसान की भरपायी करने के लिए भी तैयार थी। इस रफ़ा-दफ़ा समझौते पर 28 जनवरी 1898 को दस्तख़त हुये मगर किसी तरह से यह राज़ भागलपुर के कमिश्नर को मालूम हो गया और उसने इस समझौते में भागलपुर और मुंगेर के प्रशासन को शामिल न किये जाने पर ख़ासा ऐतराज़ जताया। उसने रेल कम्पनी को मजबूर कर दिया कि वह भागलपुर प्रशासन के साथ उसी तरह का समझौता करे जो कि उसने पूर्णियाँ के प्रशासन के साथ किया था और इस तरह के एक करार पर 5 दिसम्बर 1898 को दस्तख़त किये गये। मगर रेलवे वाले मुंगेर प्रशासन को झांसा देने में कामयाब हो गये और वहाँ रेल लाइन का निर्माण बिना किसी झंझट के चलता रहा। 1904 की बाढ़ में जब मुंगेर में बेगूसराय के इलाके में इस रेलवे बांध के कारण, जो कि गंगा के समानान्तर चलता था, भारी तबाही हुई तब बाढ़ पीड़ित लोग रेलवे प्रशासन को मुआवज़ा देने के लिए खोजते रहे पर वह क्यों नज़र आते?
सड़कों और रेलों का विकास कभी भी न रुकने वाली विकास की प्रक्रिया है। अंग्रेज़ों ने रेलों और सड़कों का विकास करके विद्रोहों को दबाने, कानून और व्यवस्था बनाये रखने तथा अपने व्यापार और मौज-मस्ती की पूरी व्यवस्था कर ली थी। उन्होंने पूरी तरह अपनी पकड़ प्रशासन पर मजबूत कर ली पर यहाँ से एक दूसरी समस्या का जन्म हुआ। गंगा की भूमि निर्माण का अर्थ था मानसी कटिहार रेल लाइन के दक्षिण नदी की पेटी का धीरे-धीरे ऊपर उठना और उसकी वज़ह से गंगा और उसकी सहायक नदियों के तलों में एक असंतुलन की सृष्टि, जिसके कारण रेल लाइन के उत्तर की जल निकासी में बाधा पैदा हो रही थी। इस इलाके में अब पहले से ज़्यादा बाढ़ आना शुरू हो गया था। इस तरह जहाँ एक ओर आवागमन की व्यवस्था में दिनों-दिन सुधार हो रहा था, बाढ़ की स्थिति उसी अनुपात में रोज़-ब-रोज़ बदतर होती जा रही थी।
बाढ़ और उसे जुड़ी यह सारी जानकारी डॉ दिनेश कुमार मिश्र के अथक प्रयासों का नतीजा है।
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