उत्तर की शक्ति, दक्षिण का प्रबंधन, पूर्व का आध्यात्म और पश्चिम की समझ-बूझ जब तक मिल कर कार्य नहीं करेंगे भारत विश्व गुरु का अपना स्थान कभी नहीं ले पाएगा. ना तो हिन्द अपनी सीमाएं बचा पाएगा और ना ही अपने जन, जीवन और ज़मीन. एक अध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक गुलाम बन बस सिन्धु पश्चिम की चाकरी ही बजाता रहेगा.
कल नर्मदा और गंगा के बेटे लड़ गए, या कहें लड़ा दिए गए. नर्मदा के बेटों ने
बोला निकल जाओ! गंगा के बेटों का पलायन अभी ज़ारी है.
अभी कुछ समय पहले ही एक नर्मदा का बेटा स्वदेसी का नारा ले कर देश भर घूमने के
बाद चंपारण आया था. जब नर्मदा और गंगा के बेटे मिले तो थेम्स के लुटेरों को खदेड़ बाहर
किया.
थेम्स के लुटेरों के कुछ स्वार्थी दलाल तब भी थे गंगा और नर्मदा के बेटों में
मिले हुए. वही थे वो जिन्हें बंदरगाह भारत से आज़ाद चाहिए था, दंभ था की सीधे
व्यापार करेंगे, हिन्द की धरती सिर्फ उपभोग करने वाली चीज़ नज़र आती थी, जिसको बाँझ
बना, बाँध लूट कर के वो पश्चिम
की नक़ल करना चाहते थे.
आज़ादी नाम की चिड़िया तो सिर्फ़ इन कुछ पिछड़े लोगों को चाहिए, जिन्हें नर्मदा और
गंगा की धूल माथे पर लगाने वाली चीज़ नज़र आती है,
ऐसी सोच वाले इन कुछ भात्रघातीयों की तमाम कोशिशों के बावजूद तब भी कुछ
प्रज्ञाशील नर्मदा और गंगा के बेटों मिल कर एक हिन्द का निर्माण किया था.
इन दलालों को तब भी पता था, और आज भी इसका ज्ञान है- की जिस दिन गंगा, नर्मदा, कावेरी के
बेटे बस अपना-अपना देखने लगेंगे, अपने स्वार्थ के लिए लड़ बैठेंगे, उस दिन फिर से
प्रत्यक्ष गुलामी सामने खड़ी मिलेगी.
हिन्द की गुलामी इन कुछ भात्रघातिओं के व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ती में ज़रूर
सहायक होंगी, इनकी इस भक्ति में एक पराधीन नस्ल होने की स्वीकृति और गुलामी की चाह, और एक ऊंची
नस्ल द्वारा संरक्षित जीवन की लालसा हमेशा दिखी है. यही थे जिन्होंने थेम्स के
मुट्ठी भर लुटेरों का साथ दिया और इतने बड़े देश को जकड़, अपनी जेबें भरीं.
गंगा और नर्मदा को कृष्ण और राम ने बाँधा है, दाल ने बाँधा है.
गुजरती सेव और मुठिया के पीछे दौड़ पड़े या यू.पी., बिहारी सत्तू, लिट्टी के पीछे ट्रेन
छोड़ दे, सिन्धु पूर्व की चना संस्कृती दोनों से छोड़े नहीं छूटती.
क्या नर्मदा के बेटे वो दर्द भूल गए जो युगांडा जैसे देश में ईदी अमीन ने
उन्हें दिया था, जब 1971 में तकरीबन 80,000 गुजरातिओं को, जो की अंग्रेजों द्वारा युगांडा की
गुलामी में सहायता के लिए बसाए हुए थे देश से निकल जाने को कहा था.
बंदरगाह पर आपके होने की वजह से अंग्रेजों ने आपको अपनी कॉलोनियों में लगातार
बसाया, जब यू.पी. बिहार का भैया “आज़ादी स्वदेशी” चिल्ला चिल्ला कर के डंडे गोली खा रहा था, आपमें
से तब कई अंग्रेजी कॉलोनियो में समृद्धि पा रहे थे.
युगांडा से निकल जाने के बाद भी आप अपने देश और धरती वापस नहीं आये, लन्दन, अमेरिका और कनाडा में आप लोगों ने बहुत कुछ झेल कर जो कुछ
पैसे कमाए आज गुजरात की व्यापारिक समृद्धि उसी का फल है.
यू.पी., बिहार भले ही जी.डी.पी. के विदेशी आंकड़ों में पीछे हो, मगर आप धरती की दशा अगर
कभी मापेंगे तो कुछ अलग ही स्थिति पाएँगे, और मन में ज़रूर सोचेंगे, काश ये कागज़ के
टुकड़े वापस कर के गुज़ारत की ज़मीन कोई वापस कर देता, और ये मैं अनुभव से कह रहा हूँ.
क्या आज नर्मदा का एक बेटा गंगा को अपनी माँ बोल कर सर्वोच्च कुर्सी प्राप्त
कर सकता है, मगर गंगा के बेटे नर्मदा के बेटों के साथ मिल कर काम नहीं कर सकते?
अप्रवासी सिर्फ बिहारी या यू. पी. का भैय्या ही नहीं है, आज जब मैं पचास पार की उम्र में “चेन इमीग्रेशन”(एक परिवार दुसरे परिवार वाले को विदेश में नागरिकता दिलाये) द्वारा एक संभ्रांत गुजराती को भी इस उम्र में अमरीका बसने आता देखता हूँ, अपने रिश्तेदार और मित्र के यहाँ किसी तरीके से निभाते हुए संघर्ष करते देखता हूँ तो समझ नहीं पाता की ऐसी क्या मज़बूरी थी की अपनी बड़ी दुकान, मकान, ज़मीन छोड़ कर, यहाँ दवाइयां खा नाईट शिफ्ट कर एक फैक्ट्री में बक्से क्यों बांध रहे हैं: उनके घर से बुज़ुर्ग और बच्चे सब दूसरों के घरों में, छोटी दुकानों में न्यूनतम तनख्वाह पर छोटा मोटा काम कर जीवन व्यापन क्यों कर रहे हैं? क्यों आपके युवाओं में इतनी ललक है विदेश में किसी भी तरह ,किसी भी कीमत पर बस जाने की? परदेश में आपमें से कई अप्रवासी तो कभी अंग्रेजी सीखने की कोशिश नहीं करते, ना ही कभी कल्चर में ही रचते बसते हैं, सबसे पहले फ़ूड कूपन और फ्री इलाज का जुगाड़ करते हैं. यू. पी. बिहार का भैया तो बाढ़, सूखे की मार झेलने के बाद मज़बूरी में बाहर देश जाता है, और मौका मिलते ही वापस चला आता है. मेहनत करता हैं, भोले पन में ठगा भी जाता है. आपकी तरह "सिस्टम" नहीं बना है न बेचारे का.
विदेशों में कोई भी छोटा बड़ा काम सर पर लगा कर समाज में किसी तरह जगह बनाने की इतने समय से जद्दोजहत करने के बाद भी क्या एक गुजराती एक अपने भाई- बिहारी, यू.पी. वाले की दशा से सद्भावना नहीं रख सकता. वो बिहारी और यू.पी. वाला जिसने 1857 में अपने दम पर क्रांति की मशाल उठाई थी? और आज अपने ही देश में काम करना चाहता है, कहीं भी मौका मिले तो विकास में हाँथ बटाना चाहता है.
क्या गुलामी के इतिहास द्वारा विदेशी धरती पर मजदूरी करने के कुछ ज्यादा मौकों ने जो
गुजराती “सिस्टम” को कुछ डॉलर, पौंड, यूरो कमाने का मौका दिया उसने आपको अपने ही देश में इतना
घमंडी बना दिया की जो आपका भाई इस धरती की सेवा में लगा रहा उसको आप पिछड़ा हुआ
देखने लगे.
आज बिहारी और यू.पी. वाले भैय्या लोगों को बेईज्ज़त करने वाले युगांडा के ई.दी.
अमीन को ज़रूर याद कर लें जिसने उन्हें
बिना नस्ली पहचान के धोकेबाज़, साज़िशी कह के
देश से निकल जाने को कहा था.
नर्मदा और गंगा इन दो बहनों के बेटे मिल कर रहें, यही हिन्द की अखंडता के लिए
परम आवश्यक है. गाँधी को नेहरु मिलें और पटेल को शास्त्री तब चलेगा ये देश, नहीं तो पूंजाभाई ठक्कर और मिठीबाई के पुत्र महमोदली जिन्नाभाई भी यहीं के थे जिन्होंने व्यक्तिगत राजसुख के लालच में राष्ट्र तोड़ डाला.
जय हिन्द.
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